उपन्यास >> पहर दोपहर पहर दोपहरअसगर वजाहत
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असगर वजाहत ने अपने इस उपन्यास में मायानगरी मुंबई की चमक-दमक की दुनिया को विषय बनाया है
असगर वजाहत के इस नए उपन्यास पहर दोपहर का बड़ा हिस्सा पात्रों के बीच होने वाले संवाद से बनता है। इस संवाद के केंद्र में लेखक ख़ुद अपने नाम असग़र से ही मौजूद रहता है और पूरा का पूरा उपन्यास उनके दोस्त जालिब के मुंबई स्थित फ्लैट से ही संचालित होता है। जालिब को असगर काफी पुराने दिनों से जानते हैं। जालिब हैदराबाद के निज़ाम के प्रमुख मंत्री हश्मतयारजंग के बिगड़ैल बेटे थे, जो पहले ऐशोआराम की ज़िंदगी बसर कर रहे थे। असगर कहते हैं कि जब जालिब आठवीं क्लास में थे, तब ही उनके पास आस्टिन गाड़ी और रखैल दोनों थीं, लेकिन पिता की मृत्यु के बाद अय्याशी ज़्यादा दिनों तक चल नहीं पाई और जब खाने के लाले पड़े तो जालिब ने मुंबई का रुख़ कर लिया। यह इस उपन्यास के शुरू होने की कहानी से पहले की कहानी है। असल में उपन्यास शुरू होता है लेखक के मुंबई पहुंचने से। लेखक इस मंसूबे के साथ मुंबई आता है कि वह फिल्मों के लिए लेखन करेगा। मुंबई पहुंच कर असगर अपने दोस्त जालिब के घर पर पहुंचते हैं, जो कि कुछ फिल्में लिखकर फिल्मी दुनिया में स्थापित हो चुका होता है। वहां उनकी मुलाक़ात उसके दोस्तों सुल्ताना, मिर्जा साहब, मानस, हैदर साहब, पिया, रतनसेन एवं उसकी पत्नी नीना आदि से होती है। इसके अलावा जालिब का एक बेहद दिलचस्प चेला जसिया भी है, जो एक रोल की चाहत में जालिब की सेवा में लगा है, इस उम्मीद में कि जालिब से कोई फिल्म प्रोड्यूसर कहानी लिखवाएगा और जालिब साहब अपने रसूख का इस्तेमाल करते हुए उसे फिल्म में कोई छोटा-मोटा रोल दिला देंगे।
पहर दोपहर में फिल्मी दुनिया के लटकों-झटकों के अलावा भी कई ऐसे प्रसंग हैं, जो वहां होने वाली घटनाओं और एक्सप्लाइटेशन को सामने लाते हैं, चमकीली दुनिया के काले सच को उघाड़ते हैं। जैसे जालिब के घर पर जब शकुन और मनोहर क़ब्ज़ा करने की सोचते हैं तो किस तरह अंडरवर्ल्ड का सहारा लिया जाता है, जो कि बाद में ख़ुद जालिब के गले की हड्डी बन जाता है। अंडरवर्ल्ड का गुंडा न केवल शकुन पर क़ब्ज़ा कर लेता है, बल्कि उसकी नज़र जालिब के फ्लैट पर भी लग जाती है. बात इतनी बढ़ जाती है कि जालिब को लगता है कि अब तो उसका प्लैट उसके हाथ से गया। लेकिन उसी व़क्त उसके काम आता है एक परिचित, जो कि किसी पुलिस वाले को जानता है और उसकी मदद के बाद ही जालिब का फ्लैट उस गुंडे से आज़ाद हो पाता है। इसके अलावा प्रोड्यूसर से पैसे वसूलने के लिए किस तरह अंडरवर्ल्ड की मदद ली जाती है, इसका संकेत भी इस उपन्यास में मिलता है। जब जालिब और रतनसेन के बीच मनमुटाव से बढ़कर बात तू-तू मैं-मैं तक पहुंच जाती है तो फिर वह रतनसेन से पैसे निकलवाने के लिए डॉन को तलाशता है।...
पहर दोपहर में फिल्मी दुनिया के लटकों-झटकों के अलावा भी कई ऐसे प्रसंग हैं, जो वहां होने वाली घटनाओं और एक्सप्लाइटेशन को सामने लाते हैं, चमकीली दुनिया के काले सच को उघाड़ते हैं। जैसे जालिब के घर पर जब शकुन और मनोहर क़ब्ज़ा करने की सोचते हैं तो किस तरह अंडरवर्ल्ड का सहारा लिया जाता है, जो कि बाद में ख़ुद जालिब के गले की हड्डी बन जाता है। अंडरवर्ल्ड का गुंडा न केवल शकुन पर क़ब्ज़ा कर लेता है, बल्कि उसकी नज़र जालिब के फ्लैट पर भी लग जाती है. बात इतनी बढ़ जाती है कि जालिब को लगता है कि अब तो उसका प्लैट उसके हाथ से गया। लेकिन उसी व़क्त उसके काम आता है एक परिचित, जो कि किसी पुलिस वाले को जानता है और उसकी मदद के बाद ही जालिब का फ्लैट उस गुंडे से आज़ाद हो पाता है। इसके अलावा प्रोड्यूसर से पैसे वसूलने के लिए किस तरह अंडरवर्ल्ड की मदद ली जाती है, इसका संकेत भी इस उपन्यास में मिलता है। जब जालिब और रतनसेन के बीच मनमुटाव से बढ़कर बात तू-तू मैं-मैं तक पहुंच जाती है तो फिर वह रतनसेन से पैसे निकलवाने के लिए डॉन को तलाशता है।...
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